समुद्र के किनारे बैठे अंगद ने दुःख से कहा की हम माता सीता का पता लगाये बिना कैसे जाएँ मगर यहाँ कही कुछ नहीं ,तभी वहा पे सम्पाती नाम का गरुण आया और बोला इतने सरे वानर आज मै सबको खा जाऊंगा । वानर डर गए पर अंगद उनसे जटायु की महिमा कहने लगे कैसे उन्होंने माता सीता की रक्षा में प्राण दे दिए । सुन के सम्पाती बहुत दुखी हुआ और भाई को तिलांजलि देके बोलने लगा की युवावस्था में हम दोनों भाई बहुत वीर थे और अभिमानी था मै । हम दोनों एक बार सूर्य की तरह उड़ चले और निक ट आने से पहले मेरे पंख जल गए और मै भूमि पे आगिरा । चन्द्रमा नाम के एक मुनि ने मेरी सहायता की और ज्ञान देके मेरा अभिमान दूर किया । वो बोले की त्रेतायुग में परम्ब्रम्ह अवतार लेंगे जिनकी स्त्री को राक्षस हर ले जाएगा , उनसे मिलके तुम पवित्र होगे और तुम्हारे पंख उग जायेंगे ।तुम उनको सीताजी का पता बताना । सम्पाती बोला आज मुनि की वाणी सत्य हुई ।
वह बोला त्रिकूट पर्वत पे अशोक वाटिका में माता सीता है । वह बोला जो सौ योजन का सागर वही पार पायेगा जो भगवन का भक्त होगा , पापी भी जिनके नाम से अनंत भवसागर को पार करते है तुम उनके भक्त हो , मन में धीरज धरो और आगे बढ़ो ।
जामवंत बोले की अब मै बुध हो गया हु , भगवन के वामन अवतार के समय मई युवा था और उनके शरीर की मैंने सात परिक्रमा कर ली थी पर अब मुझमे बल नहीं ।अंगद बोले की मै पार चला जाऊंगा पर वापस आने में संदेह है, जामवंत बोले बोले तुम लायक हो पर तुम नायक हो हमारे तुमको कैसे भेजें । और फिर ---
"कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।। पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।। कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।। "
जामवंत बोले हे हनुमान सुनो , तुम इतने बलवान बोके भी ऐसे चुप क्यों बैठे हो ।तुम पवनपुत्र हो और असीम बल है तुम्हारा । महाज्ञानी विवेक और बल वाले हो , अरे हनुमान संसार में भला ऐसा कौन सा काम है जो तुम नहीं कर सकते । अरे तुम्हारा अवतार ही रामकाज करने को हुआ है । ये सुनते ही हनुमान जी को अपना बल याद आया और वो पर्वत के आकार के हो गए ।
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा।। सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा।। सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।। जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।। एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई।। तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि संग कपि सेना।।
हनुमान जी का शरीर तेजस्वी और सोने की तरह चमक रहा था जैसे पर्वतो का रजा हो ।और वो बोले की मई इस सागर को खेल में लाँघ सकता हू ।भगवन राम के नाम को सुन के हनुमान जी को इतना बल अगया की वो बोले जामवंत क्या रावन को अभी सरे राक्षसों साथ मार के माता को ले आऊ ।जामवंत ने तब उनसे कहा नै हनुमान तुम बस उनका पता लगा के उनको ढानस बंधा के आओ । तब श्रीराम अपने बल से उनको मुक्त कराएँगे ।
The brilliance of lamp light that brings auspiciousness , health and prosperity Destroy my evil thoughts towards others , my salutation to the flame of the lamp ( so my mind would be pure before the day ends ). The flame of lamp is the essence of the universe , the flame of lamp is embodiment of God . I prostate before the Evening Lamp that takes away my sins..........
O Ishan! I pray You, the one Who is the lord of all, Who is in eternal Nirvana-bliss, Who is resplendent, Who is omni-present, and Who is Brahman and Ved in totality. I adore You, Who is for self, Who is formless, Who is without change, Who is passionless, Who is like the sky (immeasurable), and Who lives in the sky.||1||
I bow prostrate to You, Who is without a form, Who is the root of sounds, Who is the fourth impersonal state of the Atman, Who is beyond the scope of tongue, knowledge and sense-organs, Who is the Lord, Who is the Lord of Himalaya, Who is fierce, Who is the destroyer of fierce Kala, Who is benevolent, Who is the abode of qualities, and is beyond the universe.||2||
bow to You, Who is white on all like the snow, Who is profound, Who is mind, Who is in the form of living beings, Who has immense splendor and wealth. He has shining forehead with playful and enticing Ganga, He has shiny forehead with a crescent moon, and He has snake garlands in the neck.||3||
I adore Shankara, Who has swaying earrings, Who has beautiful eye on the forehead, Who is spreadout and large, Who is happy at face, Who has a blue-throat, Who is benevolent, Who has a lion-skin around His waist, Who has skull-cap garland, and Who is the dear-Lord of everyone.||4||
I adore the Lord of Bhavani, Who is fierce, Who is immense, Who is mature and brave, Who is beyond everyone, Who is indivisible, Who is unborn, Who is resplendent like millions of sun, Who uproots the three qualities (and makes us dispassionate), Who holds a trident, and Who can be achieved with emotions.||5||
O Destroyer of Kamadev, Who is beyond artwork, Who is auspicious, Who causes the end of the universe, Who always provides bliss to good people, Who destroyed Pura, Who is eternal bliss, Who absolves abundant passion! O Prabhu! Please be happy, be happy.||6||
Those who don't adore the lotus-feet of the Lord of Uma (Shiv), that men don't get happiness, comfort, and peace — in this world or the other worlds after death. O the abode of all the living beings! O Prabhu! Please be happy.||7||
I don't know yoga, japa (chanting of names), or prayers. Still, I am bowing continuously and always to You. O Shambhu! O Prabhu! Save me from the unhappiness due to old age, birth, grief, sins, and troubles. I bow to You, Who is the Lord.||8||