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Monday, May 28, 2012

सागर तट  पे जाम वंत  और हनुमान जी 

समुद्र के किनारे बैठे अंगद ने दुःख से कहा की हम  माता  सीता का पता  लगाये बिना कैसे जाएँ  मगर  यहाँ कही  कुछ नहीं ,तभी वहा पे  सम्पाती नाम  का गरुण  आया और  बोला इतने  सरे वानर  आज मै  सबको  खा जाऊंगा । वानर  डर गए  पर अंगद उनसे  जटायु  की  महिमा  कहने  लगे  कैसे  उन्होंने  माता सीता की रक्षा  में प्राण  दे  दिए । सुन के सम्पाती बहुत  दुखी  हुआ  और भाई को तिलांजलि देके  बोलने लगा की युवावस्था  में हम दोनों भाई बहुत  वीर थे और अभिमानी था मै  । हम दोनों एक  बार सूर्य  की तरह उड़  चले  और  निक ट आने से पहले मेरे पंख  जल  गए  और मै  भूमि पे आगिरा । चन्द्रमा नाम  के एक  मुनि  ने मेरी सहायता  की  और ज्ञान  देके मेरा अभिमान  दूर  किया । वो बोले की  त्रेतायुग  में  परम्ब्रम्ह अवतार लेंगे जिनकी स्त्री को राक्षस  हर ले जाएगा , उनसे मिलके तुम पवित्र होगे और तुम्हारे पंख  उग  जायेंगे ।तुम उनको सीताजी का पता बताना । सम्पाती बोला आज मुनि की वाणी सत्य  हुई ।
वह बोला त्रिकूट पर्वत पे  अशोक  वाटिका  में  माता सीता है । वह  बोला जो सौ योजन  का सागर वही पार पायेगा जो भगवन  का भक्त होगा , पापी भी जिनके नाम से अनंत  भवसागर को पार  करते है तुम उनके भक्त हो , मन में धीरज धरो और आगे बढ़ो ।
जामवंत  बोले  की अब  मै  बुध  हो गया हु , भगवन  के वामन  अवतार के समय मई युवा  था  और उनके शरीर की मैंने सात  परिक्रमा कर ली थी पर अब  मुझमे बल नहीं ।अंगद बोले की मै  पार चला जाऊंगा पर वापस  आने में संदेह है, जामवंत बोले बोले  तुम लायक  हो पर तुम नायक हो हमारे तुमको कैसे भेजें । और  फिर ---

"कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।। "

जामवंत बोले हे हनुमान  सुनो , तुम इतने बलवान  बोके भी  ऐसे चुप  क्यों बैठे  हो ।तुम  पवनपुत्र हो और असीम बल  है तुम्हारा । महाज्ञानी  विवेक  और बल वाले हो , अरे हनुमान  संसार में भला ऐसा कौन  सा काम  है जो  तुम  नहीं कर सकते । अरे तुम्हारा अवतार ही रामकाज  करने को हुआ  है । ये सुनते ही हनुमान जी  को अपना बल  याद  आया  और वो पर्वत के आकार के हो गए ।

कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा।।
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।
जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।।
एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।
तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि संग कपि सेना।।



हनुमान जी का शरीर तेजस्वी और सोने की तरह चमक रहा था  जैसे पर्वतो का रजा हो ।और वो बोले की मई इस सागर को खेल में लाँघ सकता हू ।भगवन राम के नाम को सुन के हनुमान जी को इतना बल अगया की वो बोले जामवंत क्या रावन  को अभी सरे राक्षसों साथ मार के माता को ले आऊ ।जामवंत ने तब उनसे कहा नै हनुमान तुम बस उनका पता लगा के उनको ढानस  बंधा के आओ । तब श्रीराम  अपने बल से उनको मुक्त कराएँगे । 

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